मैं उत्तर प्रदेश के एक बहुत छोटे से शहर फ़र्रुखाबाद में रहती हूँ। यहाँ बड़े मल्टीप्लेक्सेस नहीं है बस के सिनेप्लेक्स और कुछ निचले दर्जे के सिनेमाघर। हर बड़ी फ़िल्म यहाँ तक पहुँचती ही नहीं और आती भी है तो सिनेमाघर तक जाने की इक्षा नहीं होती। छोटे शहर की अपनी सीमाएं और रुकावटें होती हैं। मैं फिल्मों का या तो टीवी पर प्रसारित होने का इंतज़ार करती हूँ या फिर डाउनलोड करने के लिए अच्छे प्रिंट का। इसी कारण ये लेख जिन फिल्मों के बारे में है उन्हें आए हुए कुछ वक़्त बीत गया।
पिछले कुछ समय में बॉलीवुड ने महिलाओं और नायिकाओं की ओर एक सार्थक पहल दिखायी है। “हाइवे”, “एन.एच.10”, “पिंक”, “छपाक” (chappak)और “थप्पड़” (thappad) जैसी फिल्मों ने ना केवल संवेदनशील मुद्दों को उठाया है बल्कि नायिकाओं को एक असली पहचान दी है। असल में इन फिल्मों के माध्यम से बॉलीवुड (Bollywood) ने एक कलाकार के रूप में नायिकाओं की असली प्रतिभा को समाज और दर्शकों के समक्ष रखा है।
यहाँ मैं दो फिल्मों की चर्चा करूंगी। वो इसलिए क्यूंकी इनका जम कर बॉयकॉट हुआ है और हो रहा है। पहली फ़िल्म “छपाक”। मैंने ये फ़िल्म आज देख पायी। फ़िल्म देख कर उठने के बाद की मानसिकता को यदि सही प्रकार यहाँ लिख पाऊँ तो स्वयं को एक महान लेखिका समझने लग सकती हूँ। पर ना तो मैं महान लेखिका हूँ ना ही ठीक प्रकार अपनी वर्तमान मनः स्थिति को वर्णित कर सकती हूँ।
मालती और उसके जैसी अनगिनत युवतियाँ जो तेज़ाब के हमले से जूझी, बची या मर भी गईं। उनकी तकलीफ़ उनका जीवन उनका संघर्ष और उनकी जीवनी शक्ति में से हम किसी एक का भी लेश मात्र अंदाज़ा तक नहीं लगा सकते। जलने का दर्द क्या होता है ये जलने वाला जानता है। आप कहेंगे गरम पानी के छींटे, दिवाली के पटाखों की जलन, गर्म दूध या चाय से जलना या गैस पर चढ़े गर्म बर्तन से जल जाना तो हर किसी को पता होता है। पर तेज़ाब से जलने का दर्द क्या होता है ये मैं, आप या संसार में कोई भी कभी भी समझ नहीं सकता। यकीन मानिए आप उस वेदना की कल्पना भी नहीं करना चाहेंगे। तेज़ाब जब शरीर पर पड़ता है तो केवल ऊपरी त्वचा नहीं जलाता। बल्कि त्वचा की सभी सतहों को पार करते हुए हड्डी तक गला देता है और वो गला हुआ मांस और हड्डी कभी प्राकृतिक रूप से भरते नहीं। इन हमलों को झेलने वाली लड़कियां अगर बच जाती हैं तो एक देखने लायक चेहरा पाना के लिए भी उन्हें अनेकों सर्जरी से गुजरना होता है वो भी तब जब उनके पास उस इलाज के लिए धन हो। क्यूंकी सरकार से मिलने वाली सांतवना राशि कब, कितनी और किसे मिलेगी ये कौन ठीक-ठीक जानता है।
मालती को इलाज मिला, सहायता मिली उसके संघर्ष में बहुत सारे लोगों का साथ मिला फिर भी वो एक अन्य एसिड अटैक पीड़िता पिंकी की मृत्यु पर कहती है कि वो लकी थी जो मर गयी, कमसेकम इलाज और कचहरी के झंझटों से तो बची। एक लड़की से उसका चेहरा छीन लेना उसके अस्तित्व को छीन लेने के बराबर है। उस छिने हुए अस्तित्व और पहचान के साथ उस लड़की का फिर खड़ा हो जाना, लोगों की घ्रणित निगाहों का सामना करना, उसे देख कर डर जाने वाले बच्चों की प्रतिक्रिया पर दुखी हो जाना और उसे भूत कह कर बुलाने वाले समझदारों के ऊपर मुस्कुरा देना कैसा होता है ये आप, मैं या संसार का कोई भी, कहीं भी और कभी भी नहीं समझ सकता। मालती एसिड के विरुद्ध अपनी लड़ाई में जीती और माननीय सर्वोच्च नयालय के आदेशों पर एसिड की बिक्री पर रेगुलेशन लगाए जाने का आदेश पारित हुआ। पर समाज का वीभत्स चेहरा ये भी है कि तेज़ाब आज भी खुले आमे बोतलों में बड़े आराम से बिकता है और एक छोटे से बच्चे के लिए भी उसे खरीद लेना निहयात ही सरल है।
अब मैं बात करूंगी “थप्पड़” की। ये फ़िल्म हाल ही में रिलीज़ हुई है और ये घरेलू हिंसा जैसे गंभीर मुद्दे पर बनी एक बेहतरीन फ़िल्म है। हालांकि मैंने अब तक ये फ़िल्म देख नहीं पायी है पर इसका ट्रेलर ही मुझे आकर्षित करता है। इस तरह की फिल्मों को अच्छी या बुरी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इनकी समीक्षा मात्र इस तथ्य पर होती है कि ये जिन मुद्दों पर बनी हैं उन मुद्दों की गंभीरता और उनसे निकलने वाला संदेश दर्शकों तक पहुंचा पायी हैं कि नहीं।
घरेलू हिंसा भारतीय समाज में एक बड़ी साधारण सी बात है। पति दफ्तर का तनाव घर आ कर पत्नी पर ही तो निकालेगा। नमक कम हो जाए या अधिक पत्नी को डांट खाना और मार खाना तो बनता है। पत्नी के सिर में दर्द हो या वो माहवारी की पीड़ा में हो, पति को सुख देने के बीच में कुछ नहीं आना चाहिए। पति शराब भी पियेगा और नशा भी हावी होगा तो आखिर पत्नी को पीट कर ही तो उससे मुक्त होगा। हंसी-मज़ाक में भी एक छोटा-मोटा थप्पड़ तो चलता ही है। पर केवल पति का अपनी पत्नी पर। वो क्या है ना गुस्से में हांथ मरोड़ देना, धक्का दे देना, यहाँ तक कि घूंसा और लात मार देना भी कोई बड़ी बात नहीं। पत्नी सब सहन कर सकती है। उसे तो ईश्वर ने अनंत शक्तियों और सहनशीलता से परिपूर्ण कर के धरती पर भेजा है।
“बस एक थप्पड़….पर नहीं मार सकता” यही इस फ़िल्म की थीम है। समाज को लगता है कि अगर पति ने एक थप्पड़ मार भी दिया तो क्या? उस एक थप्पड़ पर पत्नी भला तलाक दे देगी। इसका मतलब पत्नी को पति से कभी प्रेम था ही नहीं। मेरा सवाल है कि अगर पति को अपनी पत्नी से प्रेम था या है तो वो एक थप्पड़ भी उसने मारा कैसे? फ़िल्म के ट्रेलर में देखिये नायिका तापसी पन्नु कहती हैं कि उस एक थप्पड़ ने मुझे हर वो नाइंसाफी याद दिला दी जिस पर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया। यकीन मानिए तलाक का निर्णय सरल नहीं होता और उसके बाद का जीवन किस हद तक मुश्किल हो सकता है इस बात का अनुमान भी आप नहीं लगा सकते। क्यूंकी हमारा समाज ही ऐसा है कि औरत और मर्द में फर्क करना इसका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसीलिए एक तलाक़शुदा मर्द और एक तलाक़शुदा औरत के जीवन में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। सच है कि औरत सहनशील होती है और मानसिक रूप से ताकतवर भी होती है क्यूंकी वो अपने ऊपर हुए किसी भी छोटे से छोटे अत्याचार के विरुद्ध यदि खड़ी हो जाए और उसका सामना करे तो उस मानसिक बल के आगे ईश्वर भी नतमस्तक होता है।
समाज का वीभत्स चेहरा देखिये जब भी महिलाओं के सशक्तिकरण, उनके समानता का स्तर और सुरक्षा की बात होती है, एक बहुत बड़ा बेशर्म तबका इसके विरोध में आ कर खड़ा हो जाता है। हर हाल में औरत को गलत साबित करना है। चाहे वो मी टू की बात हो या नायिका प्रधान किसी फ़िल्म की। औरत को या तो आप देवी बनाना चाहते हैं या कुलटा। उसके बीच में, आपके जैसी ही साधारण मनुष्य के रूप में उसे क्यूँ देख पाते।
छपाक की रिलीज़ से ठीक एक दिन पहले दीपिका पादुकोण (Deepika Padukone) जेएनयू में छात्रों के साथ जा कर चुप-चाप खड़ी क्या हो गयी कि असंवेदनशील तत्वों को जिन्हें बस एक मौका भर चाहिये था एसिड अटैक के दोषियों का पक्ष लेने का वो इस फ़िल्म का बहिष्कार करने लगे। अब सोचने वाली बात ये है कि ये फ़िल्म दीपिका के बारे में नहीं थी। ये फ़िल्म थी मालती और उसके जैसी तेज़ाब के हमले से पीड़ित महिलाओं के बारे में। बहिष्कार करने वालों को लगता है कि उन्होने दीपिका को उसकी जगह दिखा दी। नहीं, आपने महिलाओं को उनकी जगह दी। आपने एसिड हमलावरों का साथ दे दिया। उन्हें सही साबित कर दिया। आपने मालती और उसके जैसी पीड़िताओं पर एक बार फिर तेज़ाब फेंक दिया।
इसी तरह “थप्पड़” का भी बहिष्कार चल रहा है। क्या कहूँ कि आप दोगले हैं, आप इस समाज के लायक नहीं हैं। आप बस शरीर के अंग मात्र से पुरुष हैं अन्यथा पुरुषत्व का कोई भाव आपके अंदर नहीं है। ये भी स्पष्ट कर दूँ कि समाज मात्र पुरुष से नहीं है महिलाएं उसका अभिन्न अंग हैं और जो महिलाएं भी इस बहिष्कार में शामिल हैं वो अपने आत्म सम्मान की मृत्यु शैय्या स्वयं ही सज्ज कर रही हैं।