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विशुद्ध प्रेम की अनुभूति (Pure Love)

प्रेम (Love), प्रेम मात्र एक अनुभूति नहीं है प्रेम जीवन का आधार है। प्रेम के बिना जीव, प्रकृति और जीवन सब कुछ ही नीरस है। प्रेम के अभाव में जीवन की कल्पना भी असंभव है। सरल, विशुद्ध, निस्वार्थ प्रेम ही इस संसार को साधे हुए है। अक्सर लोग कहते हैं कि जीवन में सच्चा प्रेम मात्र एक ही बार होता है। मैं ऐसा नहीं मानती हूँ। प्रथम तो प्रेम सच्चा या झूठा नहीं हो सकता है। प्रेम या तो होता है या नहीं होता। आप प्रेम का अभिनय कर सकते हैं पर किसी से झूठा प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम असीमित है इसलिए उस पर एक बार होने की बाध्यता नहीं लगाई जा सकती।

अपने जीवन में प्रत्येक व्यक्ति प्रेम (Love) की अनुभूति से अनगिनत बार गुज़रता हैं। माता-पिता, भाई-बहन, प्रेमी-प्रेमिका, आदि। मुझे प्रकृति से बहुत प्रेम है। हरी घास पर मोती जैसी ओस की बूँदे, गौरैया की चुनचुनाहट, टिटहरि की टी-टी, सागर की हिलोरें, चंद्रमा की शीतलता, मस्तक उठाए पर्वतों की शृंखला, देवदार के पेड़, टूटता हुआ तारा, आकाश में चमचा आकार सप्तऋषि, ध्रुव तारा, पलाश, अमलतास और हारसिंगार के फूल, अशोक का पेड़ और वो सब कुछ जो इस संसार को ना केवल सौन्दर्य प्रदान करता है बल्कि जीवन भी। मुझे जीवन से प्रेम है। जीवन के प्रत्येक भाव से प्रेम है। ये प्रेम ही तो है जो घृणा और ईर्ष्या पर भारी पड़ कर संसार को जीवित रखे हैं।

21 वर्ष की आयु में प्रथम बार प्रकृति से ऊपर उठ कर मानवीय प्रेम (Love) का आभास किया था। ऐसा प्रेम जो शरीर को विलग कर आत्मा तक प्रवेश कर जाए। ऐसा लगा मानो संसार में मुझसे अधिक प्रसन्न कहीं कोई अन्य होगा ही नहीं। अचानक बॉलीवुड की रूमानी फिल्में ना केवल समझ आने लगीं थीं बल्कि पसंद भी आने लगी थीं। हर बार हीरोइन के स्थान पर स्वयं को देखने लगी थी। ऐसा ही होता है जब हमें प्रेम हो जाता है। मेरे प्रेम में कोई आशा-अपेक्षा नहीं थी। कोई बदले का भाव नहीं। बस समर्पण पूरी तरह से समर्पण। असल में अगर दो प्रेमी आपस में हिसाब किताब करने बैठ जाएँ तो फिर वो प्रेम नहीं रह जाता, वो सौदा बन जाता है और मैंने किसी सौदे पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। मुझे बस प्रेम हो गया था।

किसी लेखक ने कहीं लिखा है “प्रेम में अपेक्षाएँ नहीं होती, होता है तो बस समर्पण।“ समर्पण का एक मात्र अर्थ शरीर नहीं होता। यहाँ मेरा तात्पर्य जीवन समर्पण से है। इसी समर्पण भाव के साथ मैंने अपने प्रेम के साथ वो संबंध 13 वर्ष तक निभाया। अनेकों उतार-चढ़ाव आए, और हम बहते चले गए, पार करते चले गए। विवाह हमारा लक्ष्य कभी था ही नहीं। हम ऐसा संबंध जी रहे थे जिसको स्वयं भी हमने कभी नाम नहीं दे पाया। विवाह कभी प्रेम का लक्ष्य होता भी नहीं। विवाह मात्र एक औपचारिकता है। जो निभानी पड़ती है समाज में दिखावे के लिए। जब आत्मायेँ एक हो चुकी हों तो ना तो शरीर जुड़ने की आवश्यकता रह जाती है ना ही विवाह की औपचारिकता निभाने की।     

मैं सोल्मेट्स के अस्तित्व में यकीन रखती हूँ। जब एक आत्मा विभाजित हो कर दो या अधिक अंशों में बंट जाती है तो उस आत्मा के बंटे हुए अंशों को एक दूसरे से जुड़ने की सदा सर्वदा आस और अपेक्षा रहती है। यही है सोलमेट या ट्विन फ्लेम कनेकशन। अब वो विभाजित अंश कहाँ और किस रूप में जीवन लेते हैं आत्मा को इस बात का ज्ञान नहीं होता। इसी कारण हम जीवन भर अपूर्णता का अनुभव करते हुए पूर्ण होने की लालसा में असन्त्ष्ट और विचलित रहते हैं। इन अंशों का कहीं ना कहीं एक दूसरे से मिलना निश्चित होता है पर इनका मिलन कितनी अवधि का होगा ये कहीं तय नहीं। इनके बीच में जो सामंजस्य और जुड़ाव होता है वो एक अटूट भाव होता है जिसकी जड़ें ना जाने कितनी गहरी होती हैं।

समाज और परिस्थितियों से हार कर 13 वर्ष के अटूट संबंध पर अब विराम लग गया है। पर मैं उसे ब्रेक-अप नहीं कहती हूँ। पता नहीं ये पैच-अप, ब्रेक-अप होता क्या है? कोई बटन तो है नहीं कि दबाया और प्रेम चालू, फिर दबाया तो प्रेम बंद। वर्षों में जिन अनगिनत अनुभूतियों का आभास किया, अच्छे-बुरे समय में एक दूसरे का संबल बने, वो सब कोई एक पल, एक दिन, एक वर्ष या एक जीवन में भी कैसे भुला सकता है। हम आज साथ नहीं, पर हृदय समर्पण आज भी है, सदा रहेगा। जीवन रुकता नहीं, आगे बढ़ने का नाम ही जिंदगी है। हम आगे बढ़ रहे हैं, नयी राहें भी चुनेंगे, नए साथी भी मिलेंगे। पर आत्मा का एक अंश जो जुड़ा रह गया है वो जुड़ा ही रहेगा।

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