)”A City Without Water” (इस कहानी (fiction) को The Creative Post, कोलकाता द्वारा आयोजित All India Literature Festival 2109-20 में हिन्दी भाषा के अंतर्गत प्रथम स्थान से सम्मानित किया गया है।)
सन 3050…..
मुंबई अब मुम्बे हो चुका है। इस शहर का नाम बदलते-बदलते ऐसा हो गया है जैसे सकड़भत्त। सकड़भत्त एक ऐसी चीज़ को कहते हैं जो कई चीजों का मिश्रण हो और जिसे उसका कोई अपना नाम न दिया जा सके। यहाँ के लोगों में अरसे तक बहस चली कि बॉम्बे में जो बात थी वो मुंबई में कहाँ और मुंबई में जो फील है वो बॉम्बे में नहीं। बस ऐसे ही बॉम्बे और मुंबई के बीच लड़ता-लड़ता ये शहर आखिरकार मुम्बे हो गया।
कौस्तुभ न तो बॉम्बे से परिचित है ना ही मुंबई से। वो पैदा हुआ जब ये दोनों मिल कर शहर मुम्बे हो चुका था। सिर्फ मुम्बे ने ही नहीं भारत ने भी बहुत तर्रक्की कर ली है। अब तकनीक इतनी आगे बढ़ चुकी है कि किसी के घर में टीवी नहीं होता, मोबाइल नहीं होता यहाँ तक कि फ्रिज भी नहीं होता। किसी तरह का कोई भारी भरकम बिजली से चलने वाला यंत्र नहीं होता। सब कुछ आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से होता है। जिस दीवार पे चाहो फ्लेट स्क्रीन बन जाता है। बिलकुल वैसे ही जैसे प्रोजेक्टर काम करता था। बस फर्क ये है कि अब तकनीक महा उन्नत हो गई है। किसी को कॉल करने के लिए हाथ में फोन होना ज़रूरी नहीं है। बस अपने दिमाग के डाटाबेस में नंबर सर्च करो और हवा में ही वॉइस या वीडियो कॉल कर लो। यहाँ तक कि ये भी विकल्प है कि आपकी कॉल कोई और देख-सुन नहीं सकता जब तक आप न चाहें। वैसे अब कोई परिवार की तरह घरों में रहता भी नहीं है।
सबका सब कुछ पर्सनल हो चुका है। अब साथ बैठ कर कोई खाना नहीं खाता। वीकेंड पर पार्टीज़ और पूजा वगैहरा भी आर्टिफ़िशियली हो जाती है। यहाँ तक कि शौचालय भी अपने आप ही साफ हो जाते हैं। सब कुछ औटोमेटिक, बस सेटिंग ठीक लगानी होती है। सारा मल फ्लश होते ही लिक्विड नाइट्रोजन के संपर्क में आ कर जम जाता है और फिर नैनो पार्टिकल्स में टूट कर वाष्प बन के गायब हो जाता है। उस वाष्प को टैंक में स्टोर करते हैं और फिर भूमिगत ही उसे क्रत्रिम खेत-खलिहानों, पौधों, बगीचों तक पहुंचा दिया जाता और वो वाष्प दोबारा खाद के रूप में कारगर होती है। पर कुछ चीज़ें अब भी वैसी हैं। जैसा जीवन हमेशा से था। जीवन और मरण चक्र में कोई फर्क नहीं आया है।
कौस्तुभ एक आर्टीफ़िशियल इंटेलिजेंस इंजीनियर है। वो डब्लू.ए.आई. (वेलकम टू आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस) नामक कंपनी में बहुत ऊँची पोस्ट पर है। वैसे अब किसी को भी ज़्यादा ऑफिस जा कर काम करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, सब कुछ घर से ही संभव हो जाता है। पर कौस्तुभ अब भी ऑफिस जाता है। उसने अपनी दादी से बहुत सारी कहानियाँ सुनी हैं। कैसे लोग नौ से पाँच दफ्तरों में काम किया करते थे। दफ़्तर कितने बड़े-बड़े होते थे। उनमें कितने सारे कर्मचारी एक साथ लगातार कई-कई घंटों तक काम करते थे। हालांकि अब, जब वो दफ़्तर जाता है तो ना तो दफ़तर उतना बड़ा है ना ही वहाँ ज़्यादा स्टाफ़ होता है। क्यूंकी ज़्यादातर काम मशीनें करती हैं और जो स्टाफ़ है भी वो घर से ही काम करता है। सब कुछ डिजिटल हो चुका है। फिर भी वो दफ़्तर को महसूस करने कभी-कभी वहाँ चला जाता है।
उस दिन कौस्तुभ घर से ही काम कर रहा था। उसे एक ऐसी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तकनीक पर काम करना था जो असल में 200 साल पुरानी किसी तकनीक के प्रयोग से काम करती है। एक एल्गॉरिथ्म सोल्व करते-करते जब वो परेशान हो गया तो उठ कर अपने कमरे की खिड़की के पास जा कर खड़ा हो गया।
“ये…ये क्या है?”
कौस्तुभ ने कुछ ऐसा देखा कि उसे यकीन नहीं हुआ और उसने अपनी दूरबीन उठाई।
“व्हाट द………कितना पैसा है इन लोगों के पास बर्बाद करने के लिए।“
कौस्तुभ ने गुर्राते हुए कहा। खिड़की के पार सामने वाली इमारत के शीशे से उसे कुछ दिख रहा था जिस पर उसे विश्वास नहीं हुआ।
“ग्लास….क्रॉकरी….इसका क्या कर…..रहे…..व्हाट? पानी……”
कौस्तुभ ने किसी को ग्लासों में पानी भरते हुए देखा। वो तो ग्लास देख कर ही चौंक पड़ा था। अब कौन ग्लास इस्तेमाल करता है। ग्लास भर के पीने का पानी देख कर वो हतप्रभ था।
जब पानी सचमुच था तब सबको लगता था कि पानी ख़त्म हो जाएगा तो दुनिया ख़त्म हो जाएगी। पर पानी के बगैर भी लोगों ने जीने की जुगाड़ कर ही ली। एच2ओ के केप्सूल्स मिलते हैं अब शहर में। जो जैसा वहन कर पाये ज़रूरत के हिसाब से खरीद लेता है। इंसान ने ज़िंदा रहने के लिए एक मच्छर से भी अधिक, स्वयं को परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया है। वैसे अब मच्छर नहीं होते। पानी नहीं है ना।
“यहाँ महीने भर के केप्सूल्स भी ठीक से खरीदना मुश्किल पड़ता है और ये पूरा ग्लास पानी से भर रहे हैं। इतना पानी ये कैसे पियेंगे एक साथ। कहाँ से आया? कैसे मिला होगा? उफ़्फ़! ये वोट बैंक की राजनीति….ना जाने कितने गरीबों के 6 महीनों की मुफ्त केपसूल सप्लाई से इस की भरपाई हुई होगी।“
कौस्तुभ अब भी बड़बड़ा रहा था।
3050 भले ही आ गया हो पर गरीबी और अमीरी अब भी है। एच2ओ का एक केप्सूल लगभग 12 घंटों की प्यास मिटा सकता है। पर एक दिन में दो केप्सूल घर के हर सदस्य के लिए खरीदना हर किसी के लिए संभव नहीं। इसलिए लोगों ने खुद को ऐसे ढाला है कि एक केप्सूल से वो दो से तीन दिन भी काट लेते हैं। सरकार भी कुछ अति गरीब जनता को मुफ्त केप्सूल बांटती है। उससे वो या तो पूरा महीना काटने की कोशिश करते हैं या फिर मर जाते हैं। वो क्या है ना! गरीब तो पैदा ही मरने के लिए होता है।
कौस्तुभ काफी देर खिड़की के पास ही गुमसुम सा खड़ा रहा। सोचता रहा कि जब तक लोगों ने सूखे तालाबों के ऊपर घर ना बनाए थे, सरकार ने खाली रिवर बेसिन्स पर हवाई अड्डे और इमारतें ना बनायीं थी, जब हर तरफ पेड़-पौधे हरियाली थी, जब असली जंगल थे, तब शहर कैसा था? तब ये दुनिया कैसी थी? काश उसने कभी कोई असली झरना देखा होता। एक साथ इतना पानी क्या वो देख पाता? उसने तो कभी पूरा एक ग्लास पानी एक साथ पिया भी नहीं है। कैसा होता होगा वो शहर, जहां पानी सड़कों पर बहता था? कौस्तुभ एक काल्पनिक संसार में खोने की कोशिश कर रहा था।
“गूगल करता हूँ….ए.आई. मुझे तस्वीरें और वीडियो दिखाओ जब पानी सचमुच था” कौस्तुभ ने अपने सिस्टम को कमांड दी।
आदेश पाते ही क्रत्रिम ज्ञान यंत्र ने सामने की दीवार पर तस्वीरें दिखाना शुरू कर दिया। पहली तस्वीर एक खेत की थी। कौस्तुभ तो असली खेत देख कर ही खिल उठा।
“वाओ…..कितना खूबसूरत है ये खेत…पर यहाँ उगता क्या होगा?”
उसके प्रश्न का उत्तर ए.आई. ने तुरंत दिया। वो सरसों का खेत था। उस तस्वीर में पानी का बंबा था जिससे दूध की तरह सफ़ेद पानी की तेज़ धार बह रही थी और कुछ अध नंगे बच्चे उसमें खुशी-खुशी खेल रहे थे। बच्चों के चेहरे की मुस्कुराहट देख कौस्तुभ के चेहरे पर अपने आप मुस्कुराहट आ गयी।
दूसरी तस्वीर दूधाधरी फाल्स की थी। कौस्तुभ के लिए असली झरना देखना किसी स्वप्न के पूरे होने से कम नहीं था। तीसरा वीडियो था जिसमें एक बहती नदी के किनारे नौजवान पानी में छलाँग लगा कर तैर रहे थे।
कौस्तुभ अपना काम भूल कर मंत्रमुग्ध सा बस पानी की तस्वीरें देखे जा रहा था। यकायक उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया। अगला वीडियो जो उसके सामने आया वो गंगा नदी का था। उसने इस नदी के बारे में बहुत कुछ पढ़ा था कि कैसे एक नदी देश में उत्तर से ले कर दक्षिण तक सफर करती थी। पूरे देश के लोगों कि ना केवल प्यास बुझती थी बल्कि जंगल भी बसाती थी और बहुत कुछ। कौस्तुभ ने उस वीडियो में देखा कि कैसे लोग लावारिस लाशें गंगा में बहा रहे थे, गंदे कपड़े धो रहे थे, शौच जा रहे थे, हर बेकार वस्तु को गंगा में फेंक रहे थे। गंगा का पानी मटमैला और फिर काला होता गया।
अगला वीडियो यमुना का था। उद्योगों से निकलने वाला मलवा, गंदगी, रसायन और बहुत कुछ यमुना में रोज़ मिलाया गया। अगले वीडियो में नदियों का रास्ता रोक कर उन पर घर बन रहे थे। उसके आगे वीडियो और तस्वीरें केदारनाथ की त्रासदी की थी। उसके आगे बाढ़, सुनामी……और….
कौस्तुभ का गला बुरी तरह सूखने लगा। उसने वहीं वो वीडियोज़ छोड़ अपना एच2ओ का केप्सूल ढूँढना शुरू किया। पर वो उसे मिल नहीं रहा था। उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। ना मेज़ पर, ना दराज़ में, केप्सूल कहीं नहीं है। वो अपना गला पकड़ कर ज़मीन पर गिर पड़ा, उसे लगा अब वो नहीं बचेगा।
“पानी….पानी…..प्लीज़…..पानी” कौस्तुभ गिड़गिड़ा रहा था और उसकी आवाज़ मध्यम होती जा रही थी।
“टन्न…..”
तेज़ आवाज़ से कौस्तुभ की आँख खुल गयी तो उसने देखा कि उसके बिस्तर के पास रखा स्टील का ग्लास ज़मीन पर गिर पड़ा था। वो सपना देख रहा था…..कौस्तुभ पसीने से तर-बतर था और फर्श पर पानी-पानी था।
अच्छी कल्पना बिना पानी के शहर की, काश यह कहानी पढ़ने वालों को ही पानी बचाना सिखा दे, पानी बचाने के लिए प्रेरित करने का अच्छा प्रयास, वधाई